Wednesday, July 25, 2018

सपने.. मेरे

                मेरे अपने....सपने...।


 *सपने वो होते हें*
            *जो  सोने  नही  देते*
        *और  अपने  वो   होते   है*
           *जो रोने  नही देते !*
*प्यार इंसान से करो उसकी आदत से नही*
           *रुठो उनकी बातो से*
                  *मगर उनसे नही...*
           *भुलो   उनकी  गलतीया*
                    *पर उन्हें नही*
                         *क्योकि*
 *रिश्तों से बढकर कुछ भी नही*
   

*खामोश चहरे पर*
                  *हजारो पहरे होते है,*
     *हँसती आँखों में भी*
                   *जख्म गहरे होते है,*
     *जिनसे अक्सर*
                     *रूठ जाते है हम,*
     *असल में उनसे ही*
            *रिश्ते ज्यादा गहरे होते है .*
                 *ये दोस्ती का बंधन भी*
  *बडा अजीब है...*

*मिल जाए तो बातें लंबी....*
*बिछड जाए तो यादें लंबी....*
  ‼ *आपका दिन शुभ हो* ‼
                              चंद्रा भगत्

Wednesday, July 18, 2018

पहाडी...हम

      हम पहाड़ियो की बात..


हम.पहाडी़ के देहाती बच्चे थे,
प्राथमिक स्कूल में पढते थे,
पाट्टी लेकर स्कूल जाते थे,
पाट्टी में लिखा थूक,हाथ और कपडे़ से रघडकर मिटाते थे।
बाँस( निगाँँलू)की पतली कलम से
सफेद मिट्टी के घोल से लिखते थे,
पाट्टी को तवे की कालिख से पोतना,
हरे पत्तों से रघडना,और छोटे सिल से घोटा लगाते थे।
पाट्टी को चमकाने में हाथ,गाल,
नाक और कपडे काले हो जाते थे,
पाट्टी पर चमक आना वैसे ही
हमारे चेहरे भी चमक जाते थे।
पाट्टी में लिखते और दूसरा वादन आते ही लिखा हुआ मिटा देते थे ,
हम पहाड़ के देहाती बच्चे थे,
प्राथमिक स्कूल में पढ़ने जाते थे।
                मोहन नेगी

Saturday, July 14, 2018

पापा .....


पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई क्यों


पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई क्यों
पापा निगाहों में ममता की बाहों में
कुछ दिन और रहती तो क्या बिगड़ जाता

गया वो बचपन, गए वो अपने
बेगाने हो गैर, सारे वो अपने
नन्ही सी तू गुड़िया मेरी
नन्हा सा वो झूला तेरा
जहां में दूर हुआ
वही मुंह फूल तेरा
फिर से मनाने का
गले से लगाने का
दिन यही और रहते
तो क्या बिगड़ जाता

करूँगा में विदा तुझे है किस दिल से
सोचों जब यही मैं राह जॉन हिल के
पेर मेरी बेटी तुझे जाना तो होगा
तूने जिसे छह उसे पाना तो होगा
चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा न बाह जाए रोते रोते
       चंद्रा भगत्

Tuesday, July 3, 2018

कबुल

          कबुल...तेरे खातिर...


अपनी जिंदगी के अलग ही उसुल है,
यार की खातिर तो कांटे भी कबुल है,
हसकर चल दू कांच के टुकडों पर भी,
अगर यार कहे ये मेरे बिछाए हुए फुल है…


मिल सके आसानी से ,,,,
 उसकी ख्वाहिश किसे है?
ज़िद तो उसकी है ...
जो मुकद्दर में लिखा ही नहीं!


आँखों के परदे भी नम हो गये!
बातो के सिलसिला भी कम हो गये!
न जाने गलती किसकी है!
समय बुरा है या हम बुरे हो गये!
              चंद्रा भगत् ।