फलसफा तेरा...
ऐ जिंदगी तेरा फलसफा....
_एक घडी खरीदकर_
_हाथ मे क्या बांध ली_
_वक्त पीछे ही_
_पड गया मेरे._
_सोचा था घर बना कर_
_बैठुंगा सुकून से,_
_पर घर की जरूरतों ने_
_मुसाफिर बना डाला मुझे._
_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_
_बचपन वाला इतवार_
_अब नहीं आता._
_जीवन की भाग दौड मे_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_
_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है._
_एक सवेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_
_और आज कई बार बिना मुस्कुराये_
_ही शाम हो जाती है._
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते निभाते,_
_खुद को खो दिया हम ने_
_अपनों को पाते पाते._
_लोग केहते है_
_हम मुस्कुराते बहुत है,_
_और हम थक गए_
_दर्द छुपाते छुपाते._
_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_
_लापरवाह हूँ फिर भी_
_सब की परवाह करता हूँ._
_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
_कुछ अनमोल लोगों से_
_रिश्ता रखता हूँ._
चन्द्रा भगत्.
_एक घडी खरीदकर_
_हाथ मे क्या बांध ली_
_वक्त पीछे ही_
_पड गया मेरे._
_सोचा था घर बना कर_
_बैठुंगा सुकून से,_
_पर घर की जरूरतों ने_
_मुसाफिर बना डाला मुझे._
_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_
_बचपन वाला इतवार_
_अब नहीं आता._
_जीवन की भाग दौड मे_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_
_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है._
_एक सवेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_
_और आज कई बार बिना मुस्कुराये_
_ही शाम हो जाती है._
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते निभाते,_
_खुद को खो दिया हम ने_
_अपनों को पाते पाते._
_लोग केहते है_
_हम मुस्कुराते बहुत है,_
_और हम थक गए_
_दर्द छुपाते छुपाते._
_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_
_लापरवाह हूँ फिर भी_
_सब की परवाह करता हूँ._
_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
_कुछ अनमोल लोगों से_
_रिश्ता रखता हूँ._
चन्द्रा भगत्.
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