अनुभव मेरा..
एक सुंदर कविता....
_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,
_आप मुझे पेहचानते हो_
_बस इतना ही काफी है._
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_
_क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_
_उसने उतना ही पहचाना मुझे._
_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_
_शामें कटती नहीं और_
_साल गुजरते चले जा रहें है._
_एक अजीब सी_
_दौड है ये जिन्दगी,_
_जीत जाओ तो कई_
_अपने पीछे छूट जाते हैं और_
_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._
_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अकसर,_
_क्योंकी मुझे अपनी_
_औकात अच्छी लगती है._
_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_
_चुपचाप से बहना और_
_अपनी मौज मे रेहना._
_ऐसा नहीं की मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_
_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई फरेब नहीं है._
_जल जात है मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_
_क्यों की एक मुद्दत से मैंने,
.... न मोहब्बत बदली
और न दोस्त बदले हैं._
चंद्रा भगत्
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home