मन की ....बात...
दर्द कागज़ पर,*
*मेरा बिकता रहा,*
*मैं बैचैन था,*
*रातभर लिखता रहा..*
*छू रहे थे सब,*
*बुलंदियाँ आसमान की,*
*मैं सितारों के बीच,*
*चाँद की तरह छिपता रहा..*
*अकड होती तो,*
*कब का टूट गया होता,*
*मैं था नाज़ुक डाली,*
*जो सबके आगे झुकता रहा..*
*बदले यहाँ लोगों ने,*
*रंग अपने-अपने ढंग से,*
*रंग मेरा भी निखरा पर,*
*मैं मेहँदी की तरह पीसता रहा..*
*जिनको जल्दी थी,*
*वो बढ़ चले मंज़िल की ओर,*
*मैं समन्दर से राज,*
*गहराई के सीखता रहा..!!*
*"ज़िन्दगी कभी भी ले सकती है करवट...*
*तू गुमान न कर...*
*बुलंदियाँ छू हज़ार, मगर...*
*उसके लिए कोई 'गुनाह' न कर.*
*कुछ बेतुके झगड़े*,
*कुछ इस तरह खत्म कर दिए मैंने*
*जहाँ गलती नही भी थी मेरी*,
*फिर भी हाथ जोड़ दिए मैंने*
चंद्रा भगत्
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home